हेलो दोस्त स्वागत है आपका हमारे इस आर्टिकल में, दोस्त आज हम बात करने वाले है डार्विनवाद के बारे में डार्विनवाद का सिद्धांत क्या है? (Darwinism in Hindi) इसके बारे आज हम लोग स्टेप बाई स्टेप अध्ययन करेंगे तो चलिए शुरू करते है
डार्विनवाद का सिद्धांत क्या है? (Darwinism in Hindi)
डार्विनवाद (Darwinism in Hindi) –
डार्विनवाद के पेषक दो अंग्रेज बैज्ञानिक चार्ल्स वैलेस एवं डार्विन थे जो स्वतंत्र रूप से लगभग सामान्य निष्कर्ष से पहुचे सन 1885 ई० में माल्थर्स के आबादी वाले लेखो से प्रभावित होकर बैज्ञानिक वैलेस के दिमाग में Natural Selection या प्राकृतिक चयन का विचार आया इस पर एक लेख लिखकर डार्विन को भेजा डार्विन भी ऐसा सोचते थे कि अतः इसी वर्ष इन्होने अपने तथा वैलेस के संयुक्त नाम को छपवाया
अगले वर्ष सन 1887 ई० में इस सिद्धांत की विस्तृत भाषा प्राकृतिक चयन (Natural Selection) द्वारा जातियों की उत्पत्ति “On the origin of spection by means of Natural Selection” इस पुस्तक में डार्विन ने अपने सिद्धांतो को ठोस प्राकृतिक तत्थो पर आधारित करते हुए अपाठ्य तर्कों से बहुत ही उत्तम ढंग से प्रदर्शित किया
डार्विनवाद (Darwinism in Hindi) को निम्नलिखित महत्वपूर्ण विधियों से समझा जा सकता है
जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता –
डार्विन के अनुसार प्रत्येक जीव जाति के सदस्यों में जाति को चलने के लिए संतानोत्पत्ति की अपार क्षमता होती है
उदाहरण – सीपियो में एक मौसम में एक मादा सीपियरिस 2.5 करोड़ से अधिक अंडे देती है यदि सब अंडे एवं बीजाणु का पूरा विकास हो जाए तो किसी भी जाति के सदस्य रेखागणितीय में बढ़कर कुछ ही पीढ़ियो में पृथ्वी को भर सकते है
प्रत्येक जीव जाति (Each species) की स्थाई संतुलित आबादी –
प्रकृति में किसी भी जीव जाति के सदस्य रेखागणितीय अनुपात में बढ़ते दिखाई नहीं देते क्योकि अनेक सदस्य वयस्क बनने या प्रजनन करने योग्य होने से पहले ही किसी न किसी अवस्था में किसी न किसी कारण समाप्त हो जाते है इसलिए पृथ्वी पर प्रत्येक जाति की संख्या एक अवसत सीमा में स्थाई या संतुलित बनी रहती है
जीवन संघर्ष –
डार्विन के अनुसार प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकताओ की पूर्ती के लिए दूसरे जीवों से संघर्ष करना पड़ता है प्रत्येक जीव के लिए यह भ्रूणावस्था से प्रारंभ होकर जीवन भर चलता रहता है अतः प्रचुर संतानोत्पत्ति इसलिए करते है कि कुछ संतान विजयी होकर जाति को बचाने हेतु बचे रहते है जीवन संघर्ष सभी जीवों में देखने को मिलता है यह तीन प्रकार का होता है
- सहजातीय –
यह भोजन, वास, स्थान और संगम साथी आदि के लिए होता है
- अन्तः जातीय संघर्ष –
विभिन्न जातियों के संघर्ष परस्पर आक्रमण एवं सुरक्षा तथा प्रकाश, वास, स्थान, वायु, जल आदि के लिए संघर्ष करते रहते है
- वातावरणीय –
सभी जीव गर्मी, वर्षा, आंधी – तूफ़ान आदि अनेक वातावरणीय दशाओ से बचने के लिए संघर्ष करते रहते है
विभिन्नताए एवं उनकी वंशागति –
लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न संतानों में से जुड़वाँ सदस्यों को छोड़कर अन्य कोई भी दो सजातीय जंतु बिल्कुल समान नही होते है उनकी आवश्यकताये भी समान नही होती है इनकी विभिन्नताए अपने माता – पिता से ही विरासत में मिलती है
ये माप आकृति रंग जीवन रीतियों के रचना करगीय आदि के आनुवंशिक लक्षण में होती है कुछ विभिन्नताए जीवन संघर्ष के लाभदायक होती है और कुछ निरर्थक एवं हानिकारक होती है
योग्यतम की अजीविता या प्राकृतिक चयन (Natural Selection) –
जीवन संघर्ष में प्रत्येक जीव जातियों की सदस्य की विभिन्नताओ का बहुत महत्त्व है डार्विन ने निष्कर्ष निकला कि वे सदस्य जिनकी अधिकांश विभिन्नताए वातावरणीय दशाओ के अनुसार उपयोगी होती है बहुमुखी जीवन संघर्ष में सफल होते है इसके विपरीत अनुपयोगी विभिन्नताओ वाले सदस्य सफल जीवन की आवश्यकताओ से वंचित रह जाते है और किसी न किसी अवस्था में नष्ट हो जाते है
जीवन संघर्ष में सफल सदस्य अधिक समय तक जीवित रहते है और स्वस्थ संताने उत्पन्न करके वंश या जाति को चलाने में सबसे अधिक योगदान देते है अपने उत्कृष्ट लक्षणों के कारण ऐसे ही सदस्य संगम साथी को जीतने में भी सफल होते है इस प्रकार योग्य को ही संतान उत्पत्ति का सबसे अधिक अवसर मिलता है
इसके फलस्वरूप प्रत्येक जीव में पीढ़ी दर पीढ़ी योग्यतम सदस्यों के उच्च लक्षणों का अधिकाधिक प्रसार और घटिया लक्षणों का लोप हो जाता है डार्विन ने इसे ही प्राकृतिक चयन कहा जबकि बैज्ञानिक हाबर्ट स्पेन्स ने इसी को ही योग्यतम की अजीविता कहा है
वातावरण में निरंतर परिवर्तन –
वातावरणीय दशाये स्थाई नहीं होती है ये निरंतर बदलती रहती है बदलती हुई दशाओ के अनुसार अपने आप को परिवर्तित कर लेने की क्षमता अर्थात अनुकूलन योग्यता जीवन संघर्ष में विजयी होंने लिए बहुत आवश्यक होती है अतः अनुकूलन में सहायक विभिन्नताए लाभदायक होती है जो सदस्य अनुकूलन नहीं कर पाते है जीवन संघर्ष में असफल हो जाते है और समय के साथ नष्ट हो जाते है
उदाहरण – मीसोजोइक महाकल्प में अति सफल जीवन व्यतीत करने वाले विशालकाय शाकाहारी सरीसृपो का बाद में इस समय विनाश हो गया जब प्रकृति में परिवर्तन से वातावरण शुष्क व ठण्ड हो गया और वनस्पतियों की कमी हो गई तो ये सरीसृप न तो अपना माप कम कर पाए और न ही माँसाहारी पोषण अपना पाए
जिससे भोजन की कमी के कारण इनकी मृत्यु हो गयी और शाकाहारियो के न होने के कारण विशालकाय मांसाहारी सरीसृप भी नष्ट हो गये इसके विपरीत छोटे व मांसाहारी सरीसृप जो अपने को पत्थरो आदि के नीचे रखकर ठण्ड से बचा पाए आज भी सुरक्षित है
नई जातियों की उत्पत्ती –
प्राकृतिक चयन हमेशा चलता रहता है वातावरणीय परिवर्तनों के आवश्यकतानुसार प्रत्येक जीव जाति की आबादी में पीढ़ी दर पीढ़ी योग्यतम लक्षणों की अधिकाधिक वंशागति होती रहती है इस प्रकार अच्छे लक्षणों की वंशागति बढ़ने तथा घटिया लक्षणों का लोप होने से प्रत्येक पीढ़ी के प्रत्येक आबादी के सदस्य अपने पूर्वजो से कुछ अधिक सुगठित एवं भिन्न हो जाते है पीढ़ी दर पीढ़ी वंशागति में इसी भिन्न के कारण हजारो लाखों वर्षो बाद नई और पुरानी पीढ़ी के सदस्यों में इतना अंतर हो जाता है कि नई पीढ़ियां नई जातियां बन जाती है
डार्विनवाद की आलोचना –
डार्विनवाद के जैव विकास प्रक्रिया को बहुत अच्छा माना गया है फिर भी इसकी आलोचना में कई ऐसे प्रश्न उठाये गये जिनका समाधान इसमें नही किया गया था इस वाद की प्रमुख कमिया निम्नलिखित थी
इसमें विभिन्नताओ की उत्पत्ति एवं कारणों पर कोई प्रकाश नही डाला गया था
अनुवांशिकी के अंतर्गत आज हम जानते है कि माता – पिता से संतानों में केवल वे लक्षण वंशागति होते है जिनकी संकेत सूचनाये गुणसूत्रों के जीन्स में होती है और युग्मको के जरिये संतानों में पहुचती है डार्विन के समय तक आनुवंशिकी का कोई ज्ञान बैज्ञानिको में नही था इसलिए डार्विन ने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाने वाली और न जाने वाली विभिन्नताओ में भेद नही कर सके
जीव जन्तुओ में अनेक ऐसे अंग होते है जो पूर्ण विकसित अवस्था में ही लाभदायक होते है अच्छे विकसित अवस्था में नही अतः ऐसे अंग की उत्पत्ति प्राकृतिक चयन के द्वारा क्रमिक विकास से नही हो सकती अब हम जानते है कि इनकी उत्पत्ति उत्परिवर्तन द्वारा अकस्मात होती है
आबादी –
किसी विशेष क्षेत्र में उपस्थित एक ही जाति के समस्त सदस्यों की संख्या को आबादी कहते है
जीनपूल –
किसी आबादी में उपस्थित सदस्यों के समस्त जीन मिलकर उस आबादी के जीनपूल बनाते है
मेन्डेलियन आबादी –
ऐसी आबादी जिनका जीनपूल स्थिर हो और उसमे विकास की कोई भी परिघटना न हो रही हो मेन्डेलियन आबादी कहलाती है एक मेन्डेलियन आबादी की निम्नलिखित विशेषताए है
- इस आबादी का जीनपूल लगभग समान होता है और स्थिर रहता है
- आबादी के सभी सदस्य पास – पास रहते है और उनमे मुक्त रूप से प्रजनन होता है
- इस आबादी में बाहर से न तो कोई सदस्य आता है और न ही इसका कोई सदस्य बाहर जाता है आबादी में उत्परिवर्तन नहीं होता है
- प्राकृतिक चयन भी नही लागू होता है
Hardy – Weinberg’s low –
हार्डी एवं वीनबर्ग के अनुसार उन सभी बड़ी मेन्डेलियन आबादी में विभिन्न जीनो एवं उनके जीनोटाइप की आपेक्षिक आवृत्तियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी नियत रहती है
- जिनमे विकास की कोई परिघटना नही हो रही हो
- जीनपुल स्थिर हो और उनमे उत्परिवर्तन न हो रहा हो
- प्रजनन एवं लैंगिक जनन मुक्त रूप से हो रहा है और युग्मक संयोजन संयौगिक हो
- प्राकृतिक आवरण अनुपस्थित हो आबादी के सदस्यों के बीच आवागमन या बहिःगमन न हो
- हार्डी – वीनबर्ग का यह नियम मेंडेल के पृथक्करण के नियम का एक तार्किक निष्कर्ष है
उदाहरण के लिए – एक बड़ी मेन्डेलियन आबादी का एक जीन युगल Aa यदि Aa में उपस्थित प्रभावी जीन A और अप्रभावी जीन a को 1 माना जाय तथा प्रभावी जीन A का जीन आवृत्ति P से और अप्रभावी जीन a की जीन आवृत्ति को q से प्रभावित करें
हार्डी – वीनबर्ग के उपर्युक्त गणना को अधोलिखित उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है
उदाहरण के लिए –
मानव आबादी में अधिकांश सदस्यों में Phenylthio charbezide का अनुभव नही कर पाते यदि ये मान लिया जाय कि PTC के स्वाद को अनुभब करने वाले व्यक्तियों को जीन T है और PTC के स्वाद का अनुभव न करने वाले जीन युगल t हो इसलिए PTC के स्वाद को अनुभव करने वाले व्यक्तियों का जीन युगल TT, tt होगा अतः किसी बड़ी आबादी जीन Tt के बीच अनुपात 0.5 और 0.5 होगा
अतः उपर्युक्त गणना से स्पष्ट है कि यदि किसी बड़ी मेन्डेलियन आबादी को विकास को प्रभावित करने वाले कारक प्रभावित न करे तो इस आबादी के जीन अनुपात जीनोटाइप आवृत्ति और जीनो आवृत्ति का अनुपात पीढ़ी दर पीढ़ी स्थिर रहेगा
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